जब हम अपने विचारों या मनोभावों को व्यक्त करते हैं, तो बीच-बीच में कुछ समय के लिए रुकना या ठहरना पड़ता है। इस रुकने या ठहरने को विराम कहते हैं। भाषा के लिखित रूप में इसे दर्शाने के लिए कुछ विशेष चिन्हों का प्रयोग किया जाता है। इन चिन्हों को विराम चिन्ह कहा जाता है।
पूर्ण विराम का अर्थ है पूरी तरह से रुकना। जहाँ वाक्य की गति अन्तिम रूप ले ले और विचारों के साथ एकदम टूट जाए, उसे पूर्ण विराम कहते हैं।
जहाँ पूर्ण विराम की अपेक्षा कम समय के लिए रुका जाए, लेकिन अल्प विराम से कुछ अधिक समय के लिए रुका जाए, वहाँ अर्द्ध विराम चिन्ह का प्रयोग होता है।
अल्प विराम का अर्थ है थोड़ा रुकना। जहाँ अर्द्ध विराम की अपेक्षा थोड़े समय के लिए रुकना पड़े, वहाँ अल्प विराम चिन्ह का प्रयोग किया जाता है।
जहाँ पर कोई शब्द विशेष संबंध के कारण जुड़े होते हैं, वहाँ योजक चिन्ह का प्रयोग होता है।
इन चिन्हों का प्रयोग किसी कथन के पूर्व या संवाद लेखन में किया जाता है।
किसी कथन की जानकारी के पूर्व विवरण चिन्ह का प्रयोग किया जाता है।
यदि वाक्य को लिखते समय बीच में कोई शब्द छूट जाए तो उस छूटे हुए शब्द के स्थान पर हंसपद का चिन्ह बनाकर ऊपर लिख दिया जाता है। हंसपद को त्रुटिपूरक के नाम से भी जाना जाता है।
किसी शब्द के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए कोष्ठक का प्रयोग किया जाता है।
जब हम किसी शब्द को पूरा न लिखकर उसका केवल प्रथम लिखते हैं, तो उसके बाद लाघव चिन्ह का प्रयोग किया जाता है। लाघव चिन्ह को संक्षेप सूचक चिन्ह के नाम से भी जाना जाता है।
जहाँ पर किसी प्रकार के प्रश्न किए जाने का बोध हो, वहाँ प्रश्नवाचक चिन्ह का उपयोग किया जाता है।
जहाँ पर किसी कथन में आश्चर्य, शोक, आदि का भाव पाया जाए, वहाँ विस्मयादिबोधक का चिन्ह प्रयोग किया जाता है।
इस चिन्ह का प्रयोग समाचार शीर्षक, धार्मिक पुस्तक, तथा किसी व्यक्ति के उपनाम, आदि से किया जाता है।
किसी कथन, कहावत के साथ दोहरे उद्धरण का प्रयोग किया जाता है।